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अगर यह एक चूक न होती, तो आज ईरान और इजरायल होते गहरे दोस्त

शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी के शासन काल में, ईरान और इज़राइल के बीच संबंध अत्यधिक सहयोगपूर्ण थे। 1950 और 1960 के दशकों में, इज़राइल ने ईरान को विभिन्न प्रकार के सैन्य उपकरण और तकनीकी सहायता प्रदान की। लेकिन 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति के साथ ही शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का शासन समाप्त हो गया, और इस क्रांति का नेतृत्व आयतुल्ला खुमैनी ने किया, जिन्होंने एक धार्मिक आधार पर सरकार की स्थापना की। खुमैनी ने इस दौरान अपने पुराने मित्र इजरायल के खिलाफ कठोर रुख अपनाए।
अगर यह एक चूक न होती, तो आज ईरान और इजरायल होते गहरे दोस्त
ईरान और इजरायल, दो देश जो कभी एक-दूसरे के करीबी सहयोगी थे, अब दुश्मनी की एक नई ऊंचाई पर पहुँच गए हैं। दोनों देशों के बीच की दोस्ती की कहानी एक समय पर तेल और हथियारों के व्यापार से शुरू हुई थी, लेकिन आज यह नफरत और संघर्ष में बदल चुकी है। आज अपने लेख में हम आपको  ईरान और इजरायल के बीच की दोस्ती से लेकर दुश्मनी तक की कहानी को विस्तार से बताएगा।

ईरान और इज़राइल के बीच की दोस्ती का इतिहास बेहद दिलचस्प और विवादास्पद है। यह कहानी उस समय की है जब ईरान के शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का शासन था। साल 1948 से पहले, इस क्षेत्र को फिलिस्तीन कहा जाता था, जिस पर ऑटोमन साम्राज्य का राज था। लेकिन 14 मई 1948 को इज़रायल की स्थापना हुई, जिसके साथ ही इस क्षेत्र में एक नया अध्याय शुरू हुआ।

दरअसल 1947 में, संयुक्त राष्ट्र ने फिलिस्तीन के बंटवारे का एक प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव फिलिस्तीन को यहूदी और अरब राज्यों में विभाजित करने का था, और येरूशलम को एक अंतरराष्ट्रीय शहर बनाने का सुझाव दिया गया था। यहूदी नेताओं ने इस प्रस्ताव को मान लिया, लेकिन अरब नेताओं ने इसका विरोध किया। ईरान, उस समय एक प्रमुख इस्लामी राष्ट्र होने के नाते, इस विवाद में शामिल हो गया और उन 13 देशों में से एक था जिन्होंने इस प्रस्ताव के खिलाफ मतदान किया।

लेकिन साल 1948 में इज़रायल के अस्तित्व में आने के बाद, ईरान ने एक बार फिर 1949 में अपने रुख को दोहराया, तब भी इजरायल ने ईरान के संयुक्त राष्ट्र के सदस्य के रूप में प्रवेश के खिलाफ मतदान किया। कहते है इसी दौरान, ईरान के शाह रज़ा पहलवी ने इजरायल के साथ अपने संबंधों को मजबूत करने का निर्णय लिया, और कुछ ही वक्त में इज़रायल के साथ एक करीबी संबंध स्थापित भी किए। 1950 और 1960 के दशक आते आते, ईरान और इजरायल के बीच रिश्ते इतने बेहतर हो गए कि ईरान इजरायल को तेल की आपूर्ति करने लगा। जब ईरान में तेल का उत्पादन अपनी ऊंचाई पर था, तब ईरान ने इज़राइल को प्रतिदिन लगभग 200,000 बैरल तेल की आपूर्ति की। यह सप्लाई ईरान के लिए आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण थी क्योंकि इससे उसे अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में मदद मिली।

जबकि इज़राइल ने ईरान को विभिन्न प्रकार के हथियार, जैसे कि हल्के शस्त्र, मिसाइल और विमानों की आपूर्ति की। इसके अलावा इज़राइल ने ईरानी सैनिकों को भी प्रशिक्षित किया, और इलेक्ट्रॉनिक युद्ध प्रणाली में भी मदद की। यह सहयोग दोनों देशों के लिए फायदेमंद था, और दोनों ने अपने-अपने विकास में एक-दूसरे का समर्थन किया।

क्रांतिकारी बदलाव: ईरान में इस्लामी क्रांति

साल 1979 में ईरान में इस्लामी क्रांति के साथ ही शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का शासन समाप्त हो गया। इस क्रांति का नेतृत्व आयतुल्ला खुमैनी ने किया, जिन्होंने एक धार्मिक आधार पर सरकार की स्थापना की। शाह के शासन के दौरान, ईरान और इज़राइल के बीच के संबंध मजबूत थे, लेकिन जब खुमैनी ने सत्ता संभाली, तो ईरान ने अपने पुराने मित्र इजरायल के खिलाफ एक कठोर रुख अपनाया और इसे ईजराइल को "जहर का प्याला" करार दिया। ईरान ने इजरायल को एक दुश्मन के रूप में देखा। जिसके बाद उसकी नीति में भी बदलाव आए।

ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद, ईरान ने अपने पड़ोसी देशों में इस्लामी कट्टरवाद का प्रचार करना शुरू किया। इसने इजरायल को और परेशान किया। ईरान ने अपने समर्थन से हिजबुल्ला जैसे संगठनों को मजबूत किया, जिन्होंने इजरायल के खिलाफ कई हमले किए। इससे दोनों देशों के बीच का तनाव बढ़ता गया।
जिसके बाद 1982 में, इजरायल ने लेबनान पर आक्रमण किया, जिसका मकसद हिजबुल्ला को समाप्त करना था। इस युद्ध के बाद, ईरान ने हिजबुल्ला को और मजबूत किया और इजरायल के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा बनाया। इस युद्ध ने ईरान-इजरायल रिश्तों को और बिगाड़ दिया। इसके बाद से ईरान ने इजरायल के खिलाफ अपने बयान और नीति को और अधिक कठोर कर दिया।

न्यूक्लियर विवाद ने स्थिति को किया और खराब

ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने भी स्थिति को और बिगाड़ा। जब यह स्पष्ट हुआ कि ईरान अपने न्यूक्लियर कार्यक्रम के तहत परमाणु हथियार विकसित कर रहा है, तो इजरायल ने इसे अपनी सुरक्षा के लिए खतरा माना। इजरायल ने ईरान के न्यूक्लियर ठिकानों पर हमलों की धमकी दी और विश्व समुदाय से ईरान पर प्रतिबंध लगाने की अपील की। इस बीत इजरायल ने अपनी सुरक्षा के लिए कुछ देश, जैसे कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के साथ सामरिक गठबंधन बनाना शुरू किया। ये देश ईरान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए इजरायल के साथ मिलकर काम कर रहे हैं। हालांकि इससे तनाव कम होने की जगह और भी बढ़ गया है।

2021 में, ईरान ने अपने न्यूक्लियर कार्यक्रम को फिर से बढ़ाने का फैसला किया, जिससे इजरायल में चिंता बढ़ गई। इजरायल ने ईरान की न्यूक्लियर सुविधाओं पर हवाई हमलों की योजना बनाई और इसे अपनी सुरक्षा के लिए अनिवार्य बताया। इस बीच, ईरान ने इजरायल के खिलाफ अपने रुख को और कठोर किया है और कई बार यह चेतावनी दी है कि अगर इजरायल ने उसके न्यूक्लियर कार्यक्रम पर हमला किया, तो ईरान का प्रतिशोध भयंकर होगा।

आज की स्थिति में, ईरान और इजरायल दोनों जंग के कगार पर खड़े हैं। दोनों देशों के बीच शब्दों की जंग अब वास्तविक संघर्ष में बदलने की कगार पर है। ईरान ने अपने समर्थक संगठनों, जैसे कि हिजबुल्ला और अन्य को इजरायल के खिलाफ उकसाने की कोशिश की है। वहीं, इजरायल ने अपने सुरक्षा बलों को उच्च सतर्कता पर रखा है।

ईरान और इजरायल के बीच की दुश्मनी को देखकर कहा जा सकता है कि अगर स्थिति इसी तरह बढ़ती रही, तो एक बड़ा संघर्ष संभव है। हालाँकि, युद्ध की स्थिति को रोकने के लिए कूटनीतिक प्रयासों की भी आवश्यकता है। दोनों देशों को समझना होगा कि युद्ध केवल विनाश लाएगा, और शांति के प्रयासों से ही इस संघर्ष का समाधान संभव है।

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